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धर्मच्रक प्रवर्तन के पश्चात👇
यश की प्रव्रज्या👇
उस समय वाराणसी के एक श्रेष्ठी का यश नामक एक सुकुमार लड़का था । तीनों ऋतुओ के लिए उसने तीन प्रासाद थे । वह एक दिन उस सब से ऊब गया। उन सबके प्रति घृणा के कारण उसके चित्त में वैराग्य उत्पन्न हुआ । वह हा ! संतप्त !! हा! पीड़ित !! कहता हुआ उस रात घर से निकल, नगर से भी बाहर चला आया और जहां भगवान विराजमान थे ( ऋषिपतन-सारनाथ ) वहा पहुच गया । भगवान भी भिनसार में उठकर खुले स्थान में टहल रहे थे । भगवान ने यश कुलपुत्र को आते हुए देखकर प्रतीक्षा की । यश के मुंह मे वही हा ! सन्तप्त ! हा पीड़ित ! की रट लगी हुई थी ।
भगवान ने यश कुलपुत्र से कहा,’यश! यह है असतप्त !, यश ! यह है अपीडित ? यश? यहां आकर बैठ, तुझे धर्म बताता हूं।👇
આગળ ની જાણકારી પુસ્તક માં છે
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